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सिद्धियां

 यो वै मद्भ‍ावमापन्न ईशितुर्वशितु: पुमान् । कुतश्चिन्न विहन्येत तस्य चाज्ञा यथा मम ॥27।। मैं "इशित्व" और "वशित्व"- इन  दोनों सिद्धियों का स्वामी हूं;इसलिए कभी कोई मेरी आज्ञा टाल नहीं सकता।जो मेरे उस रूप का चिंतन करके उसी भाव से युक्त हो जाता है, मेरे समान उसकी आज्ञा को भी कोई टाल नहीं सकता।27। A person who perfectly meditates on Me acquires My nature of being the supreme ruler and controller. His order, like Mine, can never be frustrated by any means.

भोगो की असारता

 लौकिक तथा पारलौकिक भोगों की असारता का निरूपण ईश्वरके द्वारा नियंत्रित मायाके गुणोंने ही सूक्ष्म और स्थूल शरीर का निर्माण किया है। जीवको शरीर और शरीरको जीव समझ लेने के कारण ही स्थूल शरीरके जन्म मरण और सूक्ष्म शरीरके आवागमन का आत्मा पर आरोप किया जाता है। जीवको जन्म- मृत्यु लोक संसार इसी भ्रम अथवा अध्यासके कारण प्राप्त होता है। आत्माके स्वरूपका ज्ञान होने पर उसकी जड़ कट जाती है। इस जन्म मृत्यु रूप संसारका कोई दूसरा कारण नहीं,केवल अज्ञान ही मूल कारण है। इसलिए अपने वास्तविक स्वरूपको, आत्माको जानने की इच्छा करनी चाहिए।अपना यह वास्तविक स्वरूप समस्त प्रकृति और प्राकृत जगतसे अतीत, द्वैतकी गंध से रहित एवं अपनेआपमें ही स्थित है। उसका और कोई आधार नहीं है। उसे जानकर धीरे-धीरे स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर आदि में जो सत्यत्व बुद्धि हो रही है,उसे क्रमशः मिटा देना चाहिए। (यज्ञ में जब अरणी मंथन करके अग्नि उत्पन्न करते हैं तो उसमें नीचे ऊपर दो लकड़ियां रहती है और बीच में मंथन कास्ट रहता है वैसे ही) विद्या रूप अग्नि की उत्पत्ति के लिए आचार्य और शिष्य तो नीचे ऊपर की अरनिया है तथा उपदेश मंथन कास्ट है। इनसे जो

25 वेद स्तुति 38

 जब जीव माया से मोहित होकर अविद्या को अपना लेता है, उस समय उसके स्वरूपभूत आनंदआदि गुण ढक जाते हैं;वह गुण जन्य वृतियों, इंद्रियों और देहोमें फंस जाता है तथा उन्हीं को अपना आपा मानकर उनकी सेवा करने लगता है।अब उनकी जन्म-मृत्यु में अपनी जन्म-मृत्यु मान कर उनके चक्कर में पड़ जाता है।  परंतु प्रभु!जैसे सांप अपने केंचुल से कोई संबंध नहीं रखता,उसे छोड़ देता है-वैसे ही आप माया- अविद्या से कोई संबंध नहीं रखते, उसे सदा-सर्वदा छोड़े रहते हैं।इसी से आपके संपूर्ण ेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेेऐश्वर्य सदा-सर्वदा आपके साथ रहते हैं। अणिमा आदि अष्ट सिद्धियों से युक्त परम ऐश्वर्या में आपकी स्थिति है।इसी से आपका ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य अपरिमित है, अनंत है; वह देश, काल और वस्तुओं की सीमा से आबद्ध नहीं है।28। हे प्रभु! आपकी यह माया आपकी दृष्टि के आंगन में आकर नाच रही हैं और काल, स्वभाव आदि के द्वारा सत्वगुणी, रजोगुणी और तमोगुणी अनेकानेक भावो का प्रदर्शन कर रही है।साथ ही यह मेरे सिरपर सवार होकर मुझ आतुरको बलपूर्वक रौंद रही है।हे नृसिंह!मैं आपकी शरण में आया हूं,आ